ग़ज़ल 184
21--121--121--122
लख़्त-ए-जिगर का खोना क्या है!
निशदिन उसका रोना क्या है !
जो होना है होगा ही वह ,
फिर जादू क्या , टोना क्या है !
मन का दरपन साफ़ नहीं तो
तन का जल से धोना क्या है !
गठरी तो लुट जानी इक दिन
दिल से लगा कर सोना क्या है !
फ़स्ल वही काटेगा, प्यारे !
तय कर लेना , बोना क्या है!
जो रिश्ते नाकाम हुए हों
उन रिश्तों को ढोना क्या है !
सोन चिरैया देस गई है
दामन और भिगोना क्या है !
एक खिलौना टूटा ’आनन’
माटी का था रोना क्या है !
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
लख़्त-ए-जिगर का = दिल के टुकड़े का
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