सोमवार, 26 जुलाई 2021

ग़ज़ल 184

 ग़ज़ल 184

21--121--121--122


लख़्त-ए-जिगर का खोना क्या है!
निशदिन उसका  रोना क्या है !

जो होना है होगा ही वह ,
फिर जादू क्या , टोना क्या है  !

मन का दरपन साफ़ नहीं तो
तन का जल से धोना क्या है !

गठरी तो लुट जानी इक दिन
दिल से लगा कर सोना क्या है  !

फ़स्ल वही काटेगा, प्यारे !
तय  कर लेना , बोना क्या  है!

जो रिश्ते नाकाम हुए हों 
उन रिश्तों को ढोना क्या है !

सोन चिरैया देस गई है
दामन और भिगोना क्या है !

एक खिलौना टूटा ’आनन’ 
माटी का था रोना क्या है  !

-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 
लख़्त-ए-जिगर का = दिल के टुकड़े का


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