ग़ज़ल 346 [21]
2122--1212--22
काश! खुद से अगर मिला होता
भीड़ में यूँ न लापता होता ।
रंग चेहरे का क्यों उडा करते
जब हक़ीक़त से सामना होता
तुम न होते तो ज़िंदगी फिर क्या
कौन साँसों में फिर बसा होता ?
वक़्त अपने हिसाब से चलता
चाहने से हमारे क्या होता ।
बात सुननी ही जब नहीं मेरी
आप से और क्या गिला होता ।
पा ही जाता मैं मंज़िल-ए-मक़्सूद
एक ही राह जो चला होता ।
वह भी आता तुझे नज़र ’आनन’
"ढाइ-आखर"- जो तू पढ़ा होता ।
-आनन्द.पाठक-
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