रविवार, 9 जून 2024

ग़ज़ल 370

 

ग़ज़ल 370 [41F]

1212----1122---1212---22


मेरे सवाल का अब वो जवाब क्या देगा 

इधर उधर की सुना कर उसे घुमा देगा


वो अपने आप को शायद ख़ुदा समझता है

यही नशा है जो, इक दिन उसे डुबा देगा ।


यह बात और की है, आप क्यों परीशाँ  है

ये वक़्त ही है जो सबको सबक़ सिखा  देगा ।


हुनर कमाल का उसका, न कोई सानी है

नहीं हो आग जहाँ, वह धुआँ उठा देगा ।


वही है मुफ़्त की बिजली वही चुके वादे

घिसे पिटे से हैं नारे, नया वो क्या देगा ।


जुबान पर है शहद और सोच में फ़ित्ना 

खबर किसी को न होगी वो जब दग़ा देगा ।


अब उसकी बात का ’आनन’ बुरा भी क्या माने

सिवा वो झूठ के दुनिया को और क्या देगा ।


-आनन्द.पाठक -

सं 30-06-24



ग़ज़ल 369

 

ग़ज़ल 369/14-A

2122---2122--2122---212


जब बनाने मैं चला था एक अपना आशियाँ

आँधियों ने धौंस दी थीं बिजलियों नें धमकियाँ


ज़िंदगी मेरी कटी हर रंग में हर रूप में

दो घड़ी तुम क्या मिले फिर उम्र भर की तल्ख़ियाँ ।


गिर पड़े तो उठ गए, जब उठ गए तो चल पड़े

राह अपनी खो गई कुछ मंज़िलों के दरमियाँ ।


यार के दीदार की चाहत में हम थे बेख़बर

हम जिधर गुज़रे उधर थीं क़ातिलों की बस्तियाँ ।


ऐश-ओ-इशरत शादमानी जब कभी हासिल हुई

अहल-ए-दुनिया बेसबब करने लगी सरगोशियाँ ।


कम नहीं यह भी कि हम ज़िंदा रहे हर हाल में

उम्र भर की फाँस थीं दो-चार पल की ग़लतियाँ ।


हार ’आनन’ ने कभी माना नहीं , लड़ता रहा 

फिर उसे सोने न दीं कुछ ख़्वाब की बेताबियाँ ।


-आनन्द.पाठक-



ग़ज़ल 368

 

ग़ज़ल 368/13-A

221---1222//221---1222


क्या मुझको समझना है, क्या तुमको बताना है

किरदार अधूरा है, झूठा  ये फ़साना  है ।


इस एक निज़ामत के, तुम एक अदद पुर्जा ,

नाज़िम तो नहीं ख़ुद हो, जाने ये ज़माना   है ।


तुम चाँद सितारों की बातों में न खो जाना ,

मक़्सूद न ये मंज़िल , जीने का बहाना  है ।


रुकने से कभी तेरे, दुनिया तो नहीं रुकती

यह मन का भरम तेरा, कच्चा है पुराना है ।


माना कि बहुत दूरी, हम भी न चले होंगे,

जाना है बहुत आगे, हिम्मत को जगाना है ।


हटने से तो अच्छा है, लड़ना है अँधेरों से

हर मोड़ उमीदों का , इक दीप जलाना है ।


हो काम भले मुशकिल, डरना न कभी ’आनन’

जन गण के लिए हम को, इक राह बनाना है ।


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 367

 

ग़ज़ल 367 [40F]

221---1222-// 221--1222


इज़हार-ए-मुहब्बत के आदाब हुआ करते,

अपनी तो सुनाते हो, मेरी भी सुना करते।


कहने को कहो जो भी, होना था यही आख़िर,

हमने तो वफ़ा की थी, तुम भी तो वफ़ा करते ।


आसान नहीं होता, जीवन का सफ़र ,हमदम!

कुछ सख़्त मराहिल भी, हस्ती में हुआ करते ।


सरमस्त जो होते हैं रोके से कहाँ रुकते

उनकी तो अलग दुनिया, मस्ती में जिया करते।


कब सूद, जियाँकारी होती  है मुहब्बत में ,

उल्फ़त का तक़ाज़ा है, दिल खोल मिला करते।


होती है मुहब्बत की, तासीर कभी तारी 

अग़्यार भी जाने क्यों, अपने ही लगा करते।


आग़ाज़-ए-मुहब्बत से ’आनन’ तू परीशां क्यों

होतें है फ़ना सब ही, जो इश्क़ किया करते ।


-आनन्द.पाठक-


मराहिल = पड़ाव

 जियाँकारी = कदाचार ,बुरे आचरण/विचार

अग़्यार = ग़ैर लोग, अनजान लोग

सरमस्त = बेसुध, मतवाला

तासीर = असर, प्रभाव

सं 30-06-24

ग़ज़ल 366

 ग़ज़ल 366 [ 47-अ]

221---1222// 221-1222


मुश्किल है बहुत मुश्किल अपनों से विदा लेना

नायाब हैं ये आँसू, पलकों में छुपा लेना  ।


किस दिल में तुम्हे रहना, अधिकार तुम्हारा है, 

राहों में अगर अगर मिलना , नज़रे न चुरा लेना ।


जो साथ तुम्हारे हैं, मुंह मोड़ के चल देंगे ,

जो रूठ गए अपने, उनको तो मना लेना ।


हैं लोग बहुत ऐसे, सब कुछ न जिन्हें मिलता

हासिल जो हुआ तुमको, बस दिल से लगा लेना।


जीवन का सफ़र लम्बा, आसान नहीं होता ,

अपना जो लगे तुमको, हमराज़ बना लेना ।


महफ़िल में तुम्हारे जब, कल मैं न रहूँ शामिल

पर गीत मेरे होंगे, अधरों पे सजा लेना ।


’आनन’ जो हुआ पागल, आदत न गई उसकी

राहों में पड़े काँटे, पलको से उठा लेना ।


-आनन्द. पाठक- 


ग़ज़ल 365

  ग़ज़ल 365[39F]

221---2121---1221---212


अच्छा हुआ कि आप जो आए नहीं इधर

पत्थर लिए खड़े अभी कुछ लोग बाम पर


श्रद्धा के नाम पर  खड़ी अंधों की भीड़ है

जाने किधर को ले के चलेगा यह राहबर ।


मिलता है दौड़ कर जो गले से, तपाक से

मिलिए उस आदमी से तो दामन सँभाल कर।


वैसे तुम्हारे शहर का हमको नहीं पता ,

लेकिन हमारे शहर का माहौल पुरख़तर !


आँखों में ख़ास रंग का चश्मा चढ़ा हुआ ,

देखा न उसने सच कभी , चश्मा उतार कर।


हालात शादमान कि ना शादमान हो,

जीना यहीं है छोड़ के जाना है अब किधर ।


ऐसी तुम्हारी जात तो ’आनन’ कभी न थी

कुछ माल-ओ-ज़र बना लिए दस्तार बेच कर ।


-आनन्द पाठक-


शादमान, नाशादमान = सुख-दुख , हर्ष विषाद

जात = व्यक्तित्व

माल-ओ- ज़र = धन दौलत

दस्तार = पगड़ी ,इज्जत

सं 30-06-24





ग़ज़ल 364

  ग़ज़ल 351[27F]

1222---1222----1222---1222


न मिलते आप से जो हम तो दिल बहका नही होता,

अगर हम होश में आते, तो ये अच्छा नहीं होता।


तुम्हारे हुस्न के दीदार की होती तलब किसको,

तजल्ली ख़ास पर इक राज़ का परदा नहीं होता ।


असर मे आ ही जाते हम, जो वाइज के दलाइल थे,

अगर इस दरमियाँ इक मैकदा आया नहीं होता ।


कभी जब फ़ैसला करना, समझ कर, सोच कर करना,

कि फ़ौरी तौर का हो फ़ैसला ,अच्छा नहीं होता ।


अगर दिल साफ़ होता, सोच होता आरिफ़ाना तो 

तुम्हे फिर ढूँढने में मन मेरा भटका नहीं होता ।


नवाज़िश आप की हो तो समन्दर क्या. कि तूफ़ाँ क्या

करम हो आप का तो ख़ौफ़ का साया नहीं होता ।


दिखावे  में ही तूने काट दी यह ज़िंदगी ’आनन’

तू अपने आप की जानिब से क्यों सच्चा नहीं होता ।


-आनन्द.पाठक-

सं 29-06-24



 


ग़ज़ल 363


ग़ज़ल 362

  ग़ज़ल 362

2122---1212---22


हम तेरा एहतराम करते हैं

याद भी सुबह-ओ-शाम करते हैं ।


नक्श-ए-पा जब कहीं दिखा तेरा

सर झुका कर सलाम करते हैं।


सादगी भी तेरी क़यामत है

बात यह ख़ास-ओ-आम करते हैं ।


इश्क़ के जानते नताइज़, सब 

इश्क़ फिर भी तमाम करते हैं ।


क्या तुम्हें दे सकेंगे हम, जानम !

ज़िंदगी तेरे नाम करते हैं ।


उनको इस बात की ख़बर ही नहीं

मेरे दिल में क़याम करते हैं ।


कब वो वादा निभाते हैं ’आनन’

हम निभाने का काम करते हैं ।


-आनन्द.पाठक- 

ग़ज़ल 361

 ग़ज़ल 361/36


221---2121---1221---212


सीने में है जो आग इधर, क्या उधर नहीं ?

कैसे मैं मान लूँ कि तुझे  कुछ ख़बर नहीं  ।


कल तक तेरी निगाह में इक इन्क़लाब था,

अब क्या हुआ रगों में तेरी वो शरर  नहीं ।


वैसे तो ज़िंदगी ने बहुत कुछ दिया, मगर

कोई न हमकलाम कोई हम सफ़र नहीं ।


गुंचें हो वज्द में कि मसर्रत में हों, भले ,

माली की बदनिगाह से है बेख़बर नहीं ।


तेरी इनायतों का अगर सिलसिला रहा

कश्ती मेरी डुबा दे कोई वो लहर नहीं ।


डूबा जो इश्क़ में है वो उबरा न उम्र भर

यह इश्क़ है और इश्क़ कोई दर्दे-सर नही


तू मान या न मान कहीं कुछ कमी तो है

’आनन’ तेरा अक़ीदा अभी मोतबर नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

शरर = चिंगारी
गुंचा = कलियाँ
वज्द  में = उल्लास में ,आनन्द में
मसर्रत में = हर्ष मे, ख़ुशी में
अक़ीदा = आस्था , विश्वास
मोतबर = विशवसनीय, भरोसेमंद