शुक्रवार, 21 मार्च 2025

अनुभूतियाँ 152

 अनुभूति 152/39


605
काट दिए जब दिन विरहा के
मत पूछो कैसे काटे हम
सारी ख़ुशियाँ एक तरफ़ थी
जीवन टुकड़ों में बाँटे हम
 
606
 हार गए हों जो जीवन से
टूट गईं जिनकी आशाएँ
एक सहारा देना उनको
मुमकिन है फिर से जी जाएँ

607
लाख मना करता है ज़ाहिद
कब माना करता है यह दिल 
मयखाने से बच कर चलना
कितना होता है यह मुशकिल 
 
608
नदिया की अपनी मर्यादा
तट के बन्धन में रहती है
अन्तर्मन में पीड़ा रखती
दुनिया से कब कुछ कहती है
 

-आनन्द.पाठक-

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