ग़ज़ल 429 [03 G]
2122---2122---2122-
फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन
बह्र-ए-रमल मुसद्दस सालिम
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ज़िंदगी इक रंज़-ओ-ग़म का सिलसि्ला है्
यह किसी के चाहने से कब रुका है ?
वक़्त अपना वक़्त लेता है यक़ीनन
वक़्त आने पर सुनाता फ़ैसला है ।
कौन सा पल हो किसी का आख़िरी पल
हर बशर ग़ाफ़िल यहाँ , किसको पता है ।
कारवाँ का अब तो मालिक बस ख़ुदा ही
राहबर जब रहजनों से जा मिला है ।
रोशनी का नाम देकर् हर गली ,वो
अंध भक्तों को अँधेरा बेचता है ।
आप की अपनी सियासत, आप जाने
क्या हक़ीक़त है, ज़माना जानता है ।
वह अना की क़ैद से बाहर न आया
इसलिए ख़ुद से अभी नाआशना है
वक़्त हो तो सोचना फ़ुरसत में ’आनन’
मजहबी इन नफ़रतों से क्या मिला है ।
-आनन्द.पाठक-
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