शनिवार, 26 अप्रैल 2025

ग़ज़ल 431

 

ग़ज़ल 431[05-G]

2212---1212--2212---12


दौलत की भूख ने तुम्हे अंधा बना दिया

इस दौड़ में सुकून भी तुमने लुटा दिया


दो-चार बस फ़ुज़ूल इनामात क्या मिले

दस्तार को भी शौक़ से तुमने  गिरा दिया


इल्म.ओ.अदब की रोशनी चुभने लगी उसे

जलता हुआ चिराग़ भी उस ने बुझा दिया


लहजे में अब है तल्ख़ियाँ, लज़्ज़त नहीं रही

आदाब.ओ.तर्बियत मियाँ! तुमने भुला दिया


सत्ता ने चन्द आप को अलक़ाब क्या दिए

अपनी क़लम को आप ने गूँगा बना दिया


कुछ लोग थे कि राह में काँटे बिछा गए

कुछ लोग हैं कि राह से पत्थर हटा दिया


’आनन’ अजीब हाल है लोगों को क्या कहें

था शे’र और का, मगर अपना बता दिया।


-आनन्द.पाठक-

इस ग़ज़ल को श्री विनोद कुमार उपाध्याय [ लखनऊ] जी ने मेरी एक ग़ज़ल को बड़े ही दिलकश अंदाज़ में अपना स्वर दिया है आप भी सुनें। लिंक पर क्लिक करें और आनन्द उठाएँ


https://www.facebook.com/watch/?v=503360932825231&rdid=yXGK9YMOhcYihyGL


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें