गीत 01 : मैं स्वयं में खोया खोया ---
मैं स्वयं में खोया-खोया खुद में खुद को ढूंढ रहा हूँ
जब भी मैंने चलाना चाहा कितनी राह सफ़र में आए
सबके अपने-अपने दर्शन ,सबने अपने गुण बतलाए
फिर भी सब के सब व्याकुल क्यों? मूर्त भाव से सोच रहा हूँ
खुद मे ख़ुद को ढूँढ रहा हूँ।
सभी किताबों में करूणा है, प्रेम -दया की गाथा है,
बाहर कितनी चहल-पहल है, भीतर-भीतर सन्नाटा है,
मेरे दर पे खून के छींटे युग-युग से मैं पोंछ रहा हूँ।
खुद मे ख़ुद को ढूँढ रहा हूँ ।
सब के सब पंडाल लगाए, अपने अपने ग्रन्थ सजाए,
सब में 'ढाई-आखर' ही था ,फिर क्यों जीवन व्यर्थ गवाए,
युग से ,जर्जर लाल-चुनरिया जतन रही न पहन सका हूँ ।
खुद मे ख़ुद को ढूँढ रहा हूँ ।
पढ़ता है हर कोई पोथी. दिल की बात नहीं पढ़ता है,
चेतनता की बातें करता मस्तिष्क में ठहरी जड़ता है,
जल में बिम्ब ,बिम्ब में जल है ,अर्थ अभी तक खोज रहा हूँ ।
खुद मे ख़ुद को ढूँढ रहा हूँ ।
बूँद बनी या सिन्धु बना है? शून्य अथवा आकाश बने है ?
शब्दों के इस महाजाल के कैसे कैसे न्यास बने हैं ।
यक्ष-प्रश्न रह गया अनुत्तरित खुद से खुद को पूछ रहा हूँ
मैं स्वयं में खोया-खोया ,खुद मे ख़ुद को ढूँढ रहा हूँ......
-आनन्द पाठक-
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