सोमवार, 22 मार्च 2021

गीत 04

 गीत 04 : मत छूना प्रिय मुझको अपने --


मत छूना प्रिय! मुझको अपने स्नेहिल हाथों से --
पोर-पोर तक दर्द भरा है तन-मन प्राण छलक जाउंगी

इस नगरी से जाना ही था क्यों आये थे प्रेम नगरिया ?
जस का तस जब धरना ही था क्यूँ ओढी थी प्रेम चुनरिया?
जाल सुनहले नहीं फेंकना तन का रंग ही नहीं देखना
अंग-अंग में प्यास भरी है कभी जाल में फंस जाउंगी

पोर-पोर तक दर्द भरा है........

चली काल की मथनी जब भी सब में गोरस-माखन छलका
जाने मेरी गागर कैसी केवल पानी-पानी छलका
अधरों पर उषा की किरणे आँखों में है स्वप्न सजीले
रेती पर बालू का घर हूँ ना जाने कब ढह जाउंगी

पोर-पोर तक दर्द भरा है .....

तन का पिजरा रह जाएगा उड़ जायेगी सोन चिरैया
खाली पिंजरा दो कौडी का क्या सोना क्या चांदी भैया
इतनी ठेस लगी है मन में इतने खोंच लगे जीवन में
सिलने की कोशिश मत करना तार-तार में हो जाउंगी
पोर-पोर तक दर्द भरा है ....

श्वास श्वांस पर क़र्ज़ खडा है समय दे रहा जिस पर पहरा
कंधे-कंधे चला करेंगे जिस दिन होगा पूर्ण ककहरा
किसके लिए भाग-दौड़ थी कब मुठ्ठी में धूप समाई
खाली हाथ चली आई थी खाली हाथ चली जाउंगी

पोर-पोर तक दर्द भरा है...

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