बबह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन----मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन1222 ------1222---------1222---------1222
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ग़ज़ल :
यहाँ लोगों की आँखों में नमी मालूम होती है
नदी इक दर्द की जैसे रुकी मालूम होती है
हज़ारों मर्तबा दिल खोल कर बातें कही अपनी
मगर हर बार बातों में कमी मालूम होती है
चलो रिश्ते पुराने फिर से अपने गर्म कर आएं
दुबारा बर्फ की चादर तनी मालूम होती है
दरीचे खोल कर देखो कहाँ तक धूप चढ़ आई
हवा इस बन्द कमरे की थमी मालूम होती है
हमारे हक़ में जो आता है कोई लूट लेता है
सदाक़त में भी अब तो रहज़नी मालूम होती है
तुम्हारी "फ़ाइलों" में क़ैद मेरी ’रोटियां’ सपने
मेरी आवाज़ "संसद" में ठगी मालूम होती है
उमीद-ओ-हौसला,हिम्मत अभी मत छोड़ना "आनन"
सियाही रात में कुछ रोशनी मालूम होती है
-आनन्द पाठक-
[सं 19-05-18]
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