क़िस्त 17
1
दर्या जो उफ़नता है,
दिल में उलफ़त का
रोके से न रुकता है।
2
क्या ’क़ैस’ का अफ़साना,
कम तो नहीं जानम,
दिल मेरा दीवाना।
3
क्या हाल सुनाऊँ
मैं,
तुम से छुपा ही
क्या
जो और छुपाऊँ
मैं ।
4
हो रब की
मेहरबानी,
कश्ती सागर की
है पार उतर जानी।
5
क्या हुस्न पे
इतरना,
मेला दो दिन का,
इक दिन तो ढल
जाना।
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