फ़ेलुन---फ़ेलुन--फ़ेलुन--फ़ेलुन
122 -----122----122----122बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
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एक ग़ज़ल ; न पर्दा उठेगा ....
न पर्दा उठेगा , न दीदार होगा
तो सज्दा तेरे दर पे सौ बार होगा
तेरे अंजुमन में हमीं जब न होंगे
तो फिर कौन हम-सा तलबगार होगा
बहुत दिन हुए हैं कि हिचकी न आई
यक़ीनन मेरा यार बेजार होगा
मुहब्बत है कोई तमाशा नहीं ये
सरेआम मुझसे न इजहार होगा
दिल-ए-नातवाँ क्यों तू घबरा रहा है ?
मसीहा है वो ख़ुद न बीमार होगा
जो पर्दा उठेगा तो दुनिया कहेगी
ज़माने में ऐसा कहाँ यार होगा !
वो जिस दिन मेरा हमसफ़र होगा ’आनन’
सफ़र ज़िन्दगी का न दुश्वार होगा
-आनन्द पाठक--
[सं 20-05-18]
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