बुधवार, 24 मार्च 2021

गीत 31

 जिनको रहबर समझ रहे थे वही बने हैं आज लुटेरे


गाँवों को भी हवा लग गई शहरों वाली राजनीति की
पनघट की वो हँसीठिठोली बीती बातें ज्यों अतीत की
परधानी’ ’सरपंची’ करने गाँवों में आ गए बघेरे
जिनको रहबर समझ रहे थे....


जहाँ कभी कीर्तन होते थे चौपाले अब सूनी सूनी
राजनीति ने ज़हर भर दिए होने लगी चुनावें ख़ूनी
बूढ़ा बरगद देख रहा है घोटाले हर साँझ सवेरे
जिनको रहबर समझ रहे थे.......


रामराज का महानरेगा’ साहिबान के बंगलों पर है
ताल-मछलियों की संरक्षा खादी वाले बगुलों पर है
हर चुनाव में फेंक रहे हैं कैसे कैसे जाल मछेरे

जिनको रहबर समझ रहे थे.....

 
अख़बारों में अँटे पड़े हैं गाँव सभा की कथा-कहानी
टीवीवाले दिखा रहे हैं हरे-भरे खेतों में पानी
लेकिनघीसू’ ’बुधना’ घूमे लिए हाथ में वही कटोरे
कैसे कैसे भेष बदल कर गाँवों में आ गए लुटेरे
जिनको रहबर समझ रहे थे
..............

आनन्द.पाठक

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें