जो झूठे सपनों का सच था टूट गये वो सपने सारे
ऐसे सपन कहाँ जुड़ते हैं विधिना ही जब ठोकर मारेकल लगता था आस-पास हो, आज लगा कि दूर हो गए
’डालर’ के पीछे क्यों बेटा ! तुम इतने मजबूर हो गए ?
अथक तुम्हारी भाग-दौड़ यह मृगतृष्णा से ज्यादा क्या है
गठरी में ही धूप बाँधने वाले थक कर चूर हो गए
सपनों की दुनिया में खोये भूल गये क्यों दुनिया का सच ?
जितनी लम्बी चादर थी क्यों उस से ज्यादा पांव पसारे ?
वो बादल अब हवा हो गए जिस पर हमने आस लगाई
बरसे जाकर अन्य ठौर पर मेरी प्यास नहीं बुझ पाई
फिर भी रहीं दुआयें लब पर मन में शुभ आशीष वचन है
जग वालों से कैसे मैने अन्तर्मन की बात छुपाई !
उन रिश्तों की डोरी कब की टूट चुकी थी पता नहीं था
जिन रिश्तों की कस्में खाते रहते थे तुम साँझ- सकारे
आने को कह गए न आए घर आंगन मन सूना खाली
माँ से पूछो कैसे बीती ’होली’ ’दशमी’ और ’दिवाली’
हाथों में कजरौटा लेकर बूढ़ी ममता सोच रही है -
क्यों न लगाया उस दिन तुमको काला टीका नज़रों वाली
अनजाने भय के कारण मन बार बार क्यों सिहर उठा है ?
सत्य विवेचन के दर्पण में जब जब हमने रूप निहारे
अपनी अपनी सीमाएं हैं पीढ़ी का टकराव नहीं है
संस्कॄति की अपनी गरिमा है यह मन का बहलाव नहीं है
पश्चिम आगे ,पूरब पीछे ,सोच सोच का फ़र्क है ,बेटा !
एक वृत्त के युगल-बिन्दु हैं आपस में अलगाव नहीं है
केवल धन पे जीना-मरना ही तो अन्तिम सत्य नहीं है
मूल्यों पर भी जी कर देखो ,पा जाओगे के सुख के तारे
जो झूठे सपनों का सच था..........
आनन्द.पाठक
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