एक ग़ज़ल : वो आम आदमी है....
मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रबमफ़ऊलु--फ़ाइलातुन--// मफ़ऊलु--फ़ाइलातुन
221--2122 // 221-2122
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वो आम आदमी है , ज़ेर-ए-नज़र नहीं है
उसको भी सब पता है ,वो बेख़बर नहीं है
सपने दिखाने वाले ,वादे हज़ार कर ले
कैसे यकीन कर लूं , तू मोतबर नहीं है
तू मीर-ए-कारवां है ,ग़ैरों से क्यों मिला है ?
अब तेरी रहनुमाई , उम्मीदबर नहीं है
की सरफ़रोशी तूने जिस रोशनी की ख़ातिर
गो सुब्ह हुई तो लेकिन ये वो सहर नहीं है
तेरी रगों में अब भी वो ही इन्कलाबी ख़ूं हैं
फिर क्या हुआ कि उसमें अब वो शरर नहीं है
यां धूप चढ़ गई है तू ख़्वाबीदा है अब भी
दुनिया किधर चली है तुझको ख़बर नहीं है
मर कर रहा हूँ ज़िन्दा हर रोज़ मुफ़लिसी में
ये मोजिज़ा है शायद ,मेरा हुनर नहीं है
पलकें बिछा दिया हूं वादे पे तेरे आकर
मैं जानता हूँ तेरी ये रहगुज़र नहीं है
किसकी उमीद में तू बैठा हुआ है ’आनन’
इस सच के रास्ते का यां हम सफ़र नहीं है
-आनन्द.पाठक-
09413395592
ज़ेर-ए-नज़र = सामने ,
मोतबर =विश्वसनीय,
मीर-ए-कारवां = यात्रा का नायक
शरर = चिंगारी
ख्वाविंदा = सुसुप्त ,सोया हुआ
मुफ़लिसी = गरीबी ,अभाव,तंगी
मोजिज़ा =दैविक चमत्कार
यां =यहाँ
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