बुधवार, 24 मार्च 2021

गीत 40

 




ना मैं जोगी ,ना मैं ज्ञानी, मैं कबिरा की सीधी बानी ।


वेद पुरान में क्या लिख्खा है ,मैं अनपढ हूं ,मैं क्या जानू
दिल से दिल की राह मिलेगी मन निच्छल हो,मैं तो मानू
ये ऊँचा है, वो नीचा है , ये काला है , वो गोरा है
आंसू हो या रक्त किसी का ,एक रंग ही मैं पहचानू

जल की मछली जल में प्यासी किसने है ये रीत बनाई
ज्ञानी-ध्यानी सोच रहे हैं ’जल में नलिनी क्यों कुम्हलानी"?


मन के अन्दर ज्योति छुपी है ,क्यों न जगाता उस को बन्दे !
तुमने ही तो फेंक रखे हैं , अपने ऊपर इतने फन्दे
मन की बात सुना कर प्यारे ! अपनी सोच न गिरवी रख दे
आश्रम की तो बात अलग है , आश्रम के हैं अपने धन्धे

जिस कीचड़ में लोट रहा है ,उस कीचड़ का अन्त नहीं है
दास कबिरा कह गए साधो ," माया महा ठगिन हम जानी"


पोथी पतरा पढ़-पढ़ हारा ,जो पढ़ना था पढ न सके हम
आते-जाते जनम गँवाया ,जो करना था कर न सके हम
मन्दिर-मस्जिद-गिरिजा झांके ,मन के अन्दर कब झांका हैं?
ख़ुद से ख़ुद की बातें करनी थी आजीवन कर न सके हम

सबकी अपनी परिभाषा है अपने अपने अर्थ लगाते
कहत कबीरा उलट बयानी " बरसै कम्बल भींजै पानी"
ना मैं जोगी ,ना मैं......................................

आनन्द.पाठक


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