गुरुवार, 25 मार्च 2021

गीत 41

 आना जितना आसान रहा

क्या जाना भी आसान ?प्रिये ! कुछ बात मेरी भी मान प्रिये !


तुम प्रकृति नटी से लगती हो इन बासन्ती परिधानों में
तेरे गायन के सुर पंचम घुल जाते कोयल तानों में
जितना सुन्दर ’उपमेय’ रहा ,क्या उतना ही ’उपमान’? प्रिये !
या व्यर्थ मिरा अनुमान ,प्रिये !


जब मन की आँखें चार हुई तन चन्दनवन सा महक उठा
अन्तस में ऐसी प्यास जगी आँखों मे आंसू छलक उठा
तुम जितने भी अव्यक्त रहे क्या उतने ही अनजान ?प्रिये !
फिर क्या होगी पहचान ? प्रिये !


कद से अपनी छाया लम्बी क्यों उसको ही सच मान लिया
अपने से आगे स्वयं रहे कब औरों का सम्मान किया
जितना ही सुखद उत्थान रहा क्या उतना ही अवसान ? प्रिये !
फिर काहे का अभिमान ?प्रिये !


यूँ कौन बुलाता रहता है जब खोया रहता हूँ भ्रम में
मन धीरे धीरे रम जाता जीवन के क्रम औ’अनुक्रम में
मन का बँधना आसान यहाँ ,पर खुलना कब आसान ,प्रिये !
क्या व्यर्थ रहा सब ज्ञान ,प्रिये !
आना जितना आसान रहा
क्या जाना भी आसान ?प्रिये ! कुछ बात मेरी भी मान प्रिये !


आनन्द.पाठक

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