जब से चोट लगी है दिल पे ,आह निकलती रहती मन से
दुनिया ने तो झूठा समझा ,तुमने ही कब सच माना है
मेरी आँखों की ख़ामोशी , बयाँ कर गई जो न बयाँ थी
कहने की तो बात बहुत थी ,क्या करते ख़ामोश जुबाँ थी
दिल से दिल की राह न निकली,ना कोई पत्थर ही पिघला
जो सपने देखे थे हमने, उन सपनों की बात कहाँ थी
दुनिया ने गोरापन देखा ,चमड़ी का ही रंग निहारा
सूरत पे मरने वालों ने अन्तर्मन कब पहचाना है ?
दुनिया ने झूठा समझा.......
जब हृदय हमारा रोता है दुनिया क्यों हँसती गाती है ?
क्यों सबका आँगन छोड़ मिरे घर पे बिजली गिर जाती है ?
संभवत:जीवन का क्रम हो,हो सकता मेरा ही भ्रम हो
कि शायद मेरे आर्तनाद पे ही दुनिया सुख पाती है
जब गीत मिलन के गा न सका तो विरह गीत अब क्या गाना
बस अपने सच को सच समझा, सच मेरा लगे बहाना है
दुनिया ने तो झूठा समझा....
आजीवन मन में द्वन्द रहा ,मैं सोच रहा किस राह चलूं
हर मठाधीश कहता रहता ,मैं उसके मठ के द्वार चलूं
मुल्ला जी दावत देते हैं ,पंडत जी उधर बुलाते हैं
मन कहता रहता है अकसर ,मैं प्रेम नगर की राह चलूं
फिर काहें उमर गुज़ारी है,इस द्वार गए ,उस द्वार गए
माटी का संचय क्या करना ,जब छोड़ यहीं सब जाना है
दुनिया ने तो झूठा समझा ,तुमने ही कब सच माना है !
-आनन्द.पाठक
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