ग़ज़ल 65
फिर से नये चिराग़ जलाने की बात कर
सोने लगे है लोग ,जगाने की बात कर
गुज़रेगा फिर यहीं से अभी कल का कारवां
अन्दाज़-ए-एहतराम बताने की बात कर
इतना है मुश्किलों से परेशान आदमी
गर हो सके तो हँसने हँसाने की बात कर
लाना है इन्क़लाब तो क्या सोचता है तू
ज़र्रे को आफ़ताब बनाने की बात कर
माना चिराग़ हौसलों के हैं बुझे हुए
माचिस कहीं से ढूँढ के लाने की बात कर
तुझसे ख़फ़ा हूँ ,ज़िन्दगी ! तू जानती भी है
अब आ भी जा कि मुझको मनाने की बात कर
’आनन’ जमाना हो गया ख़ुद से जुदा हुए
यूँ भी कभी तो भूल से आने की बात कर
-आनन्द.पाठक
[सं 30-06-19]
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