ग़ज़ल 66
तू दूरियाँ दिलों की, मिटाने की बात कर
अब हाथ दोस्ती का , बढ़ाने की बात कर
तेरे वजूद के बिना मेरा वुजूद क्या
ये रिश्ता बाहमी है , निभाने की बात कर
परदे में है अज़ल से तेरा हुस्न जल्वागर
परदे में राज़ है तो उठाने की बात कर
आने लगा है दिल को तेरी बात का यकीं
फिर से उसी पुराने बहाने की बात कर
इलज़ाम गुमरही का जो मुझ पे लगा दिया
ज़ाहिद ! मुझे तू होश में लाने की बात कर
वाक़िफ़ नहीं हूँ क्या मैं इबादत की रस्म से ?
नौ-मश्क़ हूँ अगर तो सिखाने की बात कर
रस्म-ओ-रिवाज़ हो गए ’आनन’ तेरे क़दीम
बदली हवा ,जदीद ज़माने की बात कर
शब्दार्थ
बाहमी =आपसी .पारस्परिक
अज़ल से =अनादि काल से
क़दीम = पुराने ,पुरातन
नौ-मश्क़= नौसिखुआ
जदीद = आधुनिक
-आनन्द.पाठक
[सं 30-06-19]
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