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इलाही ! कैसा मंज़र है, हमें दिन रात छलता है
कहीं धरती रही प्यासी ,कहीं बादल मचलता है
कभी जब रास्ते में आइना उसने कहीं देखा
न जाने देख कर क्यूँ रास्ता अपना बदलता है
बुलन्दी आसमां की नाप कर भी आ गए ताईर
इधर तू बैठ कर खाली ख़याली चाल चलता है
हथेली की लकीरों पर तुम्हें इतना भरोसा क्यों ?
तुम्हारे बाजुओं से भी तो इक रस्ता निकलता है
हमारे सामने मयख़ाना भी, बुतख़ाना भी ,ज़ाहिद !
चलो मयख़ाना चलते हैं ,यहाँ क्यूँ हाथ मलता है
जिसे तुम ढूँढते फिरते यहाँ तक आ गये ,जानम
तुम्हारे दिल के अन्दर था ,तुम्हारे साथ चलता है
मुझे हर शख़्स आता है नज़र अपनी तरह ’आनन’
मुहब्बत का दिया जब दिल में सुब्ह-ओ-शाम जलता है
-आनन्द.पाठक-
[सं 30-06-19]
शब्दार्थ
मंज़र = दृश्य
ताईर = परिन्दा/पक्षी/बाज पक्षी जो अपनी
ऊँची और लम्बी उड़ान के लिए जाना जाता है
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