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फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--फ़ऊलुन-फ़ऊलुन
बह्र-ए-्मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
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ग़ज़ल 165
दुआ कर मुझे इक नज़र देखते हैं
वो अपनी दुआ का असर देखते हैं
ज़माने से उसको बहुत है शिकायत
हम आँखों में उसकी शरर देखते हैं
सदाक़त, दियानत की बातें किताबी
इधर लोग बस माल-ओ-ज़र देखते हैं
वो कागज़ पे मुर्दे को ज़िन्दा दिखा दे
हम उसका कमाल-ए-हुनर देखते हैं
दिखाता हूँ अपना जो ज़ख़्म-ए-जिगर तो
खुदा जाने किसको किधर देखते हैं
कहाँ तक हमें खींच लाई है हस्ती
अभी कितना बाक़ी सफ़र देखते हैं
सभी को तू अपना समझता है ’आनन’
तुझे लोग कब इस नज़र देखते हैं ।
-आनन्द.पाठक-
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