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ग़ज़ल 192
अभी नाज़-ए-बुतां देखूँ कि ज़ख़्मों के निशाँ देखूँ
मिले ग़म से ज़रा फ़ुरसत तो फिर कार-ए-जहाँ देखूँ
मसाइल हैं अभी बाक़ी ,मसाइब भी कहाँ कम हैं
ज़मीं पर हो जो नफ़रत कम तो फिर मैं आसमाँ देखूँ
जो देखा ही नहीं तुमने , वहाँ की बात क्या ज़ाहिद !
यहीं जन्नत ,यहीं दोज़ख़ मैं ज़ेर-ए-आसमाँ देखूँ
मुहब्बत में किसी का जब, भरोसा टूटने लगता
तो बढ़ते दो दिलों के बीच की मैं दूरियाँ देखूँ
लगा रहता है इक धड़का हमेशा दिल में जाने क्यूँ
उन्हें जब बेसबब बेवक़्त होते मेहरबाँ देखूँ
किधर को ले के जाना था ,किधर यह ले कर आया है
अमीरे-ए-कारवाँ की और क्या नाकामियाँ देखूँ
,सियासत में सभी जायज़ ,है उसका मानना ’आनन’
हुनर के नाम पर उसकी ,सदा चालाकियाँ देखूँ
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
मसाइल = समस्यायें
मसाइब =मुसीबतें
धड़का = डर ,भय,आशंका
ज़ेर-ए-आसमाँ =आसमान के नीचे यानी धरती पर
अमीरे-ए-कारवाँ = कारवाँ का नायक ,नेता
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