शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

ग़ज़ल 198

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ग़ज़ल 198

तेरे इश्क़ में इब्तिदा से हूँ राहिल

न तू बेख़बर है, न मैं हीं हूँ ग़ाफ़िल


ये उल्फ़त की राहें न होती हैं आसाँ

अभी और आएँगे मुश्किल मराहिल


मुहब्ब्त के दर्या में कागज की कश्ती

ये दर्या वो दर्या है जिसका न साहिल


जो पूछा कि होतीं क्या उलफ़त की रस्में

दिया रख गई वो हवा के मुक़ाबिल


इबादत में मेरे कहीं कुछ कमी थी

वगरना वो क्या थे कि होते न हासिल


अलग बात है वो न आए उतर कर

दुआओं में मेरे रहे वो भी शामिल


कभी दिल की बातें भी ’आनन’ सुना कर

यही तेरा रहबर, यही तेरा आदिल ।


-आनन्द. पाठक-


राहिल = यात्री


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