सोमवार, 27 सितंबर 2021

ग़ज़ल 197

 212---212--212--2

बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन महजूज़


ग़ज़ल 197


वह अँधेरे में इक रोशनी है

एक उम्मीद है, ज़िन्दगी है


एक दरिया है और एक मैं हूँ

ज़िन्दगी भर की इक तिश्नगी है


नाप सकते हैं हम आसमाँ भी

हौसलों में कहाँ कुछ कमी है


ज़िक्र मेरा न हो आशिक़ी में

यह कहानी किसी और की है


लौट कर फिर वहीं आ गए हो

राहबर ! क्या यही रहबरी है ?


सर झुका कर ज़ुबाँ बन्द रखना

यह शराफ़त नहीं बेबसी है


आजकल क्या हुआ तुझ को ’आनन’

अब ज़ुबाँ ना तेरी आतशी है ।


-आनन्द.पाठक- 

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