गीत 74
कहने को तो शिल्पी हैं कुछ शब्द रचा करते हैं
लेकिन कितने भाव है कि अव्यक्त रहा करते हैं
शब्द अगर हों अस्त-व्यस्त तो भाव कहाँ तक ठहरे
सही शब्द हो सही जगह पर अर्थ हुए हैं गहरे
आँसू की हर एक बूँद है कहती एक कहानी ,
बाँधू कैसे शब्दों में जब अक्षर अक्षर बिखरे ।
जब तक पारस परस न हो तो शब्द नहीं खिल पाते
शब्द कोश में पड़े पड़े अभिशप्त रहा करते हैं ।
पत्थर तो पत्थर ही रहता शिल्पकार ना मिलता
अनगढ़ पत्थर में जब तक वह रंग-प्राण ना भरता
अपने कौशल कला शक्ति से ऐसे शैल तराशे
बोल उठा करती हैं प्रतिमा जब जब पत्थर गढ़ता
भाषा नहीं कला की कोई भाव-भंगिमा होती
जब जब बातें करती, हम आसक्त रहा करते हैं
माँ की ममता का शब्दों से कैसे थाल सजाऊँ ?
या विरहिन के आँसू का मैं दर्द कहाँ कह पाऊँ ?
कल कल करती नदिया बहती रहती अपनी धुन में
उसी राग में उसी लहर पर कैसे गीत सुनाऊँ ?
गूंगे के गुड़-सी अनुभूति व्यक्त कहाँ हो पाती ?
जितना संभव गाते हैं , आश्वस्त रहा करते हैं ।
-आनन्द.पाठक-
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