ग़ज़ल 341
212---212---212---212
तेरी गलियों में जब से हैं जाने लगे
जिस्म से रूह तक मुस्कराने लगे
दूर से जब नज़र आ गया बुतकदा
घर तुम्हारा समझ सर झुकाने लगे
इश्क़ दर्या है जिसका किनारा नही
यह समझने में मुझको ज़माने लगे
देखने वाला ही जब न बाकी रहा
किसकी आमद में खुद को सजाने लगे
ये ज़रूरी नहीं सब ज़ुबां ही कहे
दर्द आँखों से भी कुछ बताने लगे
तुमने मुझको न समझा न जाना कभी
दूसरों के कहे में तुम आने लगे ।
राह-ए-हक़ से तुम ”आनन’ न गुज़रे कभी
इसलिए सब हक़ीक़त फ़साने लगे ।
-आनन्द.पाठक-
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