शुक्रवार, 1 मार्च 2024

ग़ज़ल 341

  ग़ज़ल 341


212---212---212---212


तेरी गलियों में जब से हैं जाने लगे

जिस्म से रूह तक मुस्कराने लगे


दूर से जब नज़र आ गया बुतकदा

घर तुम्हारा समझ  सर झुकाने लगे


इश्क़ दर्या है जिसका किनारा नही

यह समझने में मुझको ज़माने लगे


देखने वाला ही जब न बाकी रहा

किसकी आमद में खुद को सजाने लगे


ये ज़रूरी नहीं सब ज़ुबां ही कहे

दर्द आँखों से भी कुछ बताने लगे


तुमने मुझको न समझा न जाना कभी

दूसरों के कहे में तुम आने लगे ।


राह-ए-हक़ से तुम ”आनन’ न गुज़रे कभी

इसलिए सब हक़ीक़त फ़साने लगे ।


-आनन्द.पाठक-

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