ग़ज़ल 342
2122---2122---2122
यार के कूचे में जाना कब मना है !
दर पे उसके सर झुकाना कब मना है !
मंज़िलें तो ख़ुद नहीं आएँगी चल कर
रास्ता अपना बनाना कब मना है !
प्यास चातक की भला कब बुझ सकी है
तिशनगी लब पर सजाना कब मना है !
रोकती हों जो हवाओं रोशनी को-
उन दीवारों को गिराना कम मना है !
ज़िंदगी बोझिल, सफ़र भारी लगे तो
प्यार के नग्में सुनाना कब मना है !
ज़िंदगी है तो सदा ग़म साथ होंगे
पर ख़ुशी के गीत गाना कब मना है !
जो अभी हैं इश्क़ में नौ-मश्क ’आनन’
हौसला उनका बढ़ाना कब मना है !
-आनन्द.पाठक-
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