ग़ज़ल 354/29
212---212---212---212--// 212--212--212--212
मैने तुम से कभी कुछ कहा ही नहीं , बेनियाज़ी का ये सिलसिला किसलिए ?
तुमने जो भी कहा मैने माना सभी , फिर भी रहती हो मुझसे ख़फ़ा किसलिए ?
उम्र भर मै तुम्हारा रहा मुन्तज़िर, राह देखा किए आख़िरी साँस तक ,
आजमाना ही था जब मुझे ऎ सनम !बारहा फिर इशारा किया किसलिए।
जानता हूँ न आना, न आओगी तुम, सौ बहानों से वाक़िफ़ रहा मेरा दिल
क्या करें दिल है नादान समझा नहीं,उम्र भर राह देखा किया किसलिए ।
जानता हूँ तुम्हारी ये मजबूरियाँचाह कर भी न तुम कुछ भी कह पाओगी
इस जमाने का यह कौन सा है करम हाथ में ले के पत्थर खड़ा किसलिए ।
क्या छुपा है जो तुमसे छुपाऊँगा मैं और क्या है जो तुमको न मालूम हो
इक भरम का था परदा रहा उम्र भर, सच उसे मानता मैं रहा किसलिए ?
ज़िंदगी का सफ़र इतना आसाँ नहीं , हर क़दम दर क़दम पर मिले पेच-ओ-ख़म
जो मिला है उसे ही नियति मान लें, जो न हासिल उसे सोचना किसलिए !
तुम रफ़ीक़ों की बातों में फिर आ गई,कान भरना था उनको , भरे चल दिए
तुमने मेरी सफ़ाई सुनी ही कहाँ , बिन सुने ही दिया फिर सज़ा किसलिए ?
उसकी मुट्ठी खुली तो दिखी, खाक थी, कहते थकता नहीं था कि है लाख की
क्या हक़ीक़त थी सबको तो मालूम था,वह मुख़ौटे चढ़ाए रहा किसलिए ?
तुम भी ’आनन’ कहाँ किस ज़माने के हो, कौन मिलता यहाँ बेसबब बेग़रज़
जिसको समझा किया उम्र भर मोतबर, फेर कर मुंह वही चल दिया किसलिए ?
-आनन्द.पाठक-
मुन्तज़िर = प्रतीक्षक
बारहा = बार बार
मोतबर = विश्वसनीय
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