शुक्रवार, 21 मार्च 2025

अनुभूतियाँ 159

  

अनुभूति159/46 


633

नहीं समझना है जब तुमको

कौन तुम्हें फिर क्या समझाए

इतनी जिद भी ठीक नहीं है

घड़ी मिलन की बीती जाए ।


634

सबके अपने जीवन क्रम है

सबकी अपनी मजबूरी है

मन तो वैसे साथ साथ है

तन से तन की ही दूरी है ।


635

समझौते करने पड़ते हैं

जीवन की गति से, प्रवाह में

कभी ठहरना, गिर गिर जाना

मंज़िल पाने की निबाह में


636

एक तुम्ही तो नहीं अकेली

ग़म का बोझ लिए चलती हो

हर कोई ग़मजदा यहाँ है

ऊपर से दुनिया छलती है ।


-आनन्द.पाठक-






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