शुक्रवार, 21 मार्च 2025

अनुभूतियाँ 166

  अनुभूतियां 166/53


661
नदी किनारे गाता कोई
गीत विरह का किसे सुनाता
चला गया जो कब आता है
जान रहा फिर किसे बुलाता ।

662
सबकी अपनी अपनी दुनिया
सब अपने में ही खोए हैं
काटेंगे कल फ़सल वही सब
अबतक जिसने जो बोए हैं

663
जलता है जब गुलशन मेरा
*कोई हँसता है मन ही मन*
जितना समझाता हूँ दिल को
उतनी बढ़ती जाती उलझन

664
मत पूछो हमराही  मेरे
कैसे थे या क्या थे वो दिन
 राजमहल थी कुटिया मेरी
आज खंडहर है उसके बिन 

-आनन्द पाठक-

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