अनुभूतियाँ 178/65
हाथ मिलाना हाय! हलो! बस
दिल का दिल से पर्दादारी
मन से मन ही नही मिला जो
बाक़ी तो बस दुनियादारी ।
710
व्यर्थ विवेचन क्या करना अब
चाकू कहाँ किधर रखना था
अन्तिम परिणति नियति यही थी
खरबूजे को ही कटना था ।
711
कण कण में सब देख रहे हैं
सत्ता का विस्तार तुम्हारा ।
ग्यानी-ध्यानी सोच रहे हैं
क्या होगा आकार तुम्हारा ।
712
रंग मंच पर अभिनय तबतक
जब तक पर्दा नहीं गिरा है
कर्म सभी के निर्धारित हैं
जिनको जितना ’रोल’ मिला है
-आनन्द.पाठक-
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