शनिवार, 26 अप्रैल 2025

ग़ज़ल 435

  ग़ज़ल 435 [09-G]

2122---1212---22


लोग क्या क्या नहीं कहा करते ,

हम भी सुन कर केअनसुना करते ।


उनके दिल को सुकून मिलता है

जख़्म वो जब मेरे हरा करते ।


ताज झुकता है, तख़्त झुकता है

इश्क़ वाले कहाँ झुका करते ।


 कर्ज है ज़िंदगी का जो  हम पर

उम्र भर हम उसे अदा करते।


सानिहा दफ्न हो चुका कब का

कब्र क्यों खोद कर नया करते ?


जिनकी गैरत , जमीर मर जाता

चंद टुकड़ो पे वो  पला करते ।


ग़ैर से क्या करें गिला ’आनन’

अब तो अपने भी हैं दग़ा करते


-आनन्द.पाठक-


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