ग़ज़ल 435 [09-G]
2122---1212---22
लोग क्या क्या नहीं कहा करते ,
हम भी सुन कर केअनसुना करते ।
उनके दिल को सुकून मिलता है
जख़्म वो जब मेरे हरा करते ।
ताज झुकता है, तख़्त झुकता है
इश्क़ वाले कहाँ झुका करते ।
कर्ज है ज़िंदगी का जो हम पर
उम्र भर हम उसे अदा करते।
सानिहा दफ्न हो चुका कब का
कब्र क्यों खोद कर नया करते ?
जिनकी गैरत , जमीर मर जाता
चंद टुकड़ो पे वो पला करते ।
ग़ैर से क्या करें गिला ’आनन’
अब तो अपने भी हैं दग़ा करते
-आनन्द.पाठक-
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