शनिवार, 26 अप्रैल 2025

ग़ज़ल 436

  ग़ज़ल् 436 [10-]

212---212---212---212--


उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ कमी

क्यों उज़ालों में उसको दिखे तीरगी ।


तुम् सही को सही क्यों नहीं मानते

राजनैतिक कहीं तो नहीं बेबसी ?


दाल में कुछ तो काला नज़र आ रहा

कह रही अधजली बोरियाँ ’नोट’ की


लाख अपनी सफ़ाई में जो भॊ कहॊ

क्या बिना आग का यह धुआँ है सही


क़ौम आपस में जबतक लड़े ना मरे

रोटियाँ ना सिकीं, व्यर्थ है ’लीडरी’


जिसको होता किसी पर भरोसा नहीं

खुद के साए से डरता रहा है वही ।


हम सफर जब नहीं ,हम सुखन भी नहीं

फिर ये 'आनन' है किस काम की जिंदगी

-आनन्द.पाठक-


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