शनिवार, 27 मार्च 2021

ग़ज़ल 01

 221-----2122---//  221-----2122

बह्र-ए-मुज़ारिअ मुसम्मन अख़रब
मफ़ऊलु---फ़ाइलातुन..// मफ़ऊलु---फ़ाइलातुन
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चाँदी की तश्तरी में ,नज़राने कब महल के ?
शामिल मेरी क़लम में, कुछ दर्द हैं ग़ज़ल के

किस को मिली यहाँ है ,इक ज़िन्दगी मुकम्मल
दो चार दिन खुशी के ,बाक़ी हैं  सब ख़लल के

दुनिया हसीन लगती ,देखा कभी जो होता
अपनी अना से बाहर ,आता जो तू निकल के

वादे ,वफ़ा ,मुहब्बत ,बातें हैं सब किताबी
आदाब दो दिनों के, शायद हैं आजकल के

दिल को न था गवारा, ले पैरहन फटा -सा
आते तुम्हारे दर पर ,क्या भेष हम बदल के

बेदार जो भी देखा , इक ख़्वाब था भरम था
है देखना हक़ीक़त , अब राह-ए-मर्ग चल के

तेरी गली में ’आनन’,फिसलन भी कम नहीं है
मैं आ रहा हूँ  फिर भी, बच बच सँभल सँभल के


-आनन्द.पाठक-

[सं  26-07-2020 ]

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