क़िस्त 03
:01:
ख़ुद से न गिला होता
यूँ न भटकते हम
तू काश ! मिला होता ।
:02
ऐसे न बनो बरहम 1
चुप हो पहलू में
!
कैसी ये सज़ा जानम ?
:03:
बरगद बूढ़ा ही
सही
घर के आँगन में
इक छाँव बनी तो
रही ।
;04:
मिलने मे मुहूरत
क्या !
जब चाहे आना
साइत की ज़रूरत
क्या !
:05:
रिश्तों को निभा
देना,
बर्फ़ जमी हो तो
कुछ धूप दिखा
देना ।
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