:क़िस्त 04
:01:
मत काटो शाख़-ए-शजर,
लौटेंगे थक कर
इक शाम परिन्दे घर ।
:02:
मैं मस्त कलन्दर
हूँ,
बाहर से क़तरा
भीतर से समन्दर
हूँ ।
:03:
ये किसकी
राहगुज़र ?
झुक जाता है सर
सजदे में यहाँ
आकर ।
:04:
सौ ख़्वाब ख़यालों
में,
जब तक है पर्दा,
उलझा हूँ
सवालों में ।
:05:
दुनिया ने
ठुकराया,
और कहाँ जाता,
मयखाने चला आया।
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