ग़ज़ल 32
ग़ज़ल 32
ख़यालों में जब से वो आने लगे हैं
हमीं ख़ुद से ख़ुद को बेगाने लगे हैं
हुआ सर-ब-सज़्दा तिरी आस्तां पे
यहाँ आते आते ज़माने लगे हैं
तिरा अक़्स उतरा है जब आईने में
सभी अक़्स मुझको पुराने लगे हैं
अभी हम ने उनसे कहा कुछ नहीं है
इलाही ! वो क्यों मुस्कराने लगे हैं ?
निगाहों में जिनको बसा कर रखा था
वही आज नज़रें चुराने लगे हैं
वो रिश्तों को क्या ख़ास तर्ज़ीह देते !
जो रिश्तों को सीढ़ी बनाने लगे हैं
है अन्दाज़ अपना फ़कीराना ’आनन’
दुआओं की दौलत लुटाने लगे हैं
-आनन्द.पाठक-
8800927181
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