ग़ज़ल 34
एक ग़ज़ल : वो मुखौटे बदलता रहा....
वो मुखौटे बदलता रहा उम्र भर
और ख़ुद को भी छलता रहा उम्र भर
मुठ्ठियाँ जब तलक गर्म होती रहीं
मोम सा वो पिघलता रहा उम्र भर
वो खिलौने से ज़्यादा था कुछ भी नहीं
चाबियों से खनकता रहा उम्र भर
जिसके आँगन में उतरी नहीं रोशनी
वो अँधेरों से डरता रहा उम्र भर
उसको गर्द-ए-सफ़र का पता ही नहीं
झूट की छाँव पलता रहा उम्र भर
उसको मंज़िल मिली ही नहीं आजतक
मंज़िलें जो बदलता रहा उम्र भर
बुतपरस्ती मिरा हुस्न-ए-ईमान है
फिर ये ज़ाहिद क्यूं जलता रहा उम्र भर?
मैकदा है इधर और का’बा उधर
दिल इसी में उलझता रहा उम्र भर
आ गया कौन ’आनन’ ख़यालों में जो
दर-ब-दर यूं भटकता रहा उम्र भर ?
-आनन्द
09413395592
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