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बह्र-ए-रमल मुसम्मन महज़ूफ़फ़ाइलातुन---फ़ाइलातु--फ़ाइलातुन--फ़ाइलुन
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एक ग़ज़ल : लोग अपनी बात कह कर......
लोग अपनी बात कह कर फिर मुकर जाते हैं क्यों ?
आईने के सामने आते बिखर जातें हैं क्यों ?
बात ग़ैरों की चली तो आप आतिशजन हुए
बात अपनो की चली चेहरे उतर जाते हैं क्यों ?
इन्क़लाबी दौर में कुछ लोग क्यों ख़ामोश हैं ?
मुठ्ठियां भींचे हुए घर में ठहर जाते हैं क्यों?
हौसले परवाज़ के लेकर परिन्दे आ गए
उड़ने से ही ठीक पहले पर कतर जातें हैं क्यों?
सच की बातें ,हक़ बयानी जब कि राहे-मर्ग है
सिरफ़िरे कुछ लोग ज़िन्दादिल उधर जाते है क्यों?
पाक दामन साफ़ थे उनसे ही कुछ उम्मीद थी
सामने नज़रें चुरा कर ,वो गुज़र जातें हैं क्यों ?
छोड़ ये सब बात ’आनन’ किसकी किसकी रोएगा
लोग ख़ुद को बेंच कर जाने निखर जातें हैं क्यों ?
-आनन्द.पाठक-
[सं 02-06-18]
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