एक गीत : जाने क्यों ऐसा लगता है....
जाने क्यों ऐसा लगता है
कटी कटी सी रहती हो तुम -सोच सोच कर मन डरता है
जाने क्यों ऐसा लगता है
कितना भोलापन था तेरी आँखों में जब मैं था खोता
बात बात में पूछा करती -"ये क्या होता? वो क्या होता?"
ना जाने क्या बात हो गई,अब न रही पहली सी गरमी
कहाँ गया वो अल्हड़पन जो कभी बदन मन कभी भिगोता
चेहरे पर थी, कहाँ खो गई प्रथम मिलन की निश्छ्लता है
जाने क्यों ऐसा लगता है...................
कभी कहा करती थी ,सुमुखी !-"सूरज चाँद भले थम जाएं
ऐसा कभी नहीं हो सकता ,तुम चाहो औ’ हम ना आएं "
याद शरारत अब भी तेरी ,बात बात में क़सम दिलाना
भूली बिसरी यादों के अब बादल आँखे नम कर जाएं
ये सब कहने की बातें हैं ,कौन भला किस पर मरता है
जाने क्यों ऐसा लगता है ...................
करती थी तुम "ह्वाट्स एप्" पर सुबह शाम की सारी बातें
अब तो होती ’गुड् मार्निंग’- गुड नाईट " बस दो ही बातें
जाने किसका शाप लग गया ,ग्रहण लग गया हम दोनों पर
जाने कितनी देर चलेंगी उथल पुथल ये झंझावातें
निष्फ़ल न हो जाएं मेरे ’आशीष वचन" अब मन डरता है
कटी कटी सी रहती हो तुम्-जाने क्यों ऐसा लगता है
सोच सोच कर मन डरता है---------------------
-आनन्द.पाठक-
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