1222---1222---1222----1222
वही मुद्दे , वही वादे ,वही चेहरे पुराने हैं
सियासत की बिसातें हैं शराफ़त के बहाने हैं
चुनावी दौर में फ़िरक़ापरस्ती की हवाएं क्यूँ
निशाने पर ही क्यों रहते हमारे आशियाने हैं
हमारे दौर का ये भी करिश्मा कम नहीं, यारो !
रँगे है हाथ ख़ूँ जिन के ,उन्हीं के हम दिवाने हैं
तुम्हारे झूठ में कबतक ,कहाँ तक ढूँढते सच को
तुम्हारी सोच में अब साज़िशों के ताने-बाने हैं
जिधर नफ़रत सुलगती हैं ,उधर है ख़ौफ़ का मंज़र
जिधर उल्फ़त महकती है, उधर मौसम सुहाने हैं
चलो इस बात का भी फ़ैसला हो जाये तो अच्छा
तेरी नफ़रत है बरतर या मेरी उल्फ़त के गाने हैं
यही है वक़्त अब ’आनन’ उठा ले हाथ में परचम
अभी लोगो के होंठों पर सजे क़ौमी तराने हैं
-आनन्द.पाठक-
[सं 30-06-19]
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