शुक्रवार, 26 मार्च 2021

माहिया 65

 क़िस्त 65

 

1

उलफ़त के हों साए,

हँसते गाते बस,

यह उम्र गुज़र जाए।

 

2

अपना न कोई होता,

तेरे रोने पर,

है कौन यहाँ रोता?

 

3

जी हाँ! मै काफ़िर हूँ,

शह्र-ए-बुतां 1 का मैं,

बस एक मुसाफ़िर हूँ।

 

4

ये कैसी रवायत है,

सच-सच बोलूँ तो,

दुनिया को शिकायत है।

 

5

याँ सब की आँखें नम,

किसको फ़ुरसत है,

सुनता जो तुम्हारा ग़म?

 

 

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