क़िस्त 74
1
इक हुस्न-ए-क़यामत है,
जान पे बन आई,
आँखों की शरारत है।
3
अब ज़ौर1 के क़ाबिल है,
मान लिया तुम ने,
मक़्रूज़ 2 हुआ दिल है।
2
रुखसार3 पे काला तिल,
लगता है जैसे,
तुम से भी बड़ा क़ातिल।
4
आँखों का नशा क्या है?
जानोगे कैसे?
जीने का मज़ा क्या है ?
5
फूलों सा बदन तेरा,
उस पर यह बोझिल,
खुशबू का वज़न तेरा।
1 अत्याचार, 2- ऋणी
,कर्जदार, 3 गाल
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