क़िस्त 77
1
जब जान ही है लेना,
और तरीक़े भी,
बस रूठ के हँस देना।
2
तुम पर न अगर मरता,
तुम ही कहों जानम,
दिल आख़िर क्या करता?
3
कुछ चाह नहीं दिल में,
तुम को ही देखूँ,
इक माह-ए-कामिल1 में।
4
इक प्यार को पा लेना,
काँटॊं को जैसे,
पलको से उठा लेना।
5
दुनिया है सियह्खाना,
शर्त मगर यह भी,
बेदाग़ निकल आना।
1-
पूर्णिमा का चाँद
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