क़िस्त 79
1
ग़म अपना ढो लेंगे,
पूछोगी जब तुम,
"अच्छा हूँ’-बोलेंगे।
2
माना जख़्मी है दिल,
कैसे समझे तुम,
ये इश्क़ के नाक़ाबिल ?
3
ये कैसी शरारत
है ,
चिलमन में छुप
कर,
करता वो इशारत
है।
4
जख़्मों को छुपा
रखना,
कम तो नहीं
’आनन’,
ग़म अपना दबा
रखना।
5
यह जादू किसका है?
उजड़े चमन में भी,
यह नूर जो छिटका
है।
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