क़िस्त 84
1
कहने में हिचक क्या है !
यूँ न दबा रख्खो,
इतनी भी झिझक क्या है !
2
जो कहनी थी कह दी.
समझो ना समझो,
तुम बात मेरे मन की।
3
लिखने में अड़चन
थी,
मुझसे कह देते,
जो मन की उलझन
थी।
4
उलफ़त का तक़ाज़ा
है,
धीरे से खुलता,
दिल का दरवाज़ा
है ।
5
भँवरा तो भँवरा
है,
एक कली पर वो,
रहता कब ठहरा है
?
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