क़िस्त 87
1
यूँ रूठ के चल देना,
हौले से हँस कर,
फिर बात बदल देना।
2
अबतक क्या कम भोगा !
उल्फ़त में तेरे,
जो होना है होगा।
3
ख़ामोश सदा रहती,
पहलू में आ कर,
कुछ तुम भी तो
कहती।
4
वह राज़ न खोलेगा,
पूछ रही हो क्या,
दरपन क्या
बोलेगा?
5
लहरा कर चलती हो,
खुद से छुप छुप
कर,
ख़ुद छत पे टहलती
हो।
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