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सुबह सुबह ही उठ कर तुम ने
बेपरवा जब ली अँगड़ाई
टूट गया दरपन शरमा कर
खुद से जब तुम खुद शरमाई
मजबूरी क्या क्या न तुम्हारी
जान रहा हूँ, मैं भी जानम !
क़दम तुम्हारे बँधे हुए थे .
आती भी तो कैसे, हमदम !
आज अचानक याद तुम्हारी
मलय गन्ध सी जब आई है
सोए सपने जाग उठे सब
सपनों नें ली अँगड़ाई है
शाम इधर होने को आई
तुम अपना सामान उठा लो
अगर ग़लत कुछ हुआ कभी हो
दीवानापन समझ भुला दो
-आनन्द.पाठक-
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