क़िस्त 80
317
कल तक वो जो दम भरती थी
जिसकी दुआओं में था शामिल
आज उसी की नज़रॊ में हूँ
नाक़िस मैं, नाक़ाबिल यह दिल
318
दुनिया को लगता है शायद
झूठे सब किस्से होते हैं
प्यार वफ़ा तनहाई लेकिन
जीवन के हिस्से होते हैं ।
319
कैसे हाथ बढ़ाते तुम तक
हाथ हमारे कटे हुए थे
वक़्त के हाथों कौन बचा है
हम पहले से लुटे हुए थे
320
जब से रूठ गई तुम मुझसे
रूठ गया ज्यों चाँद गगन से
नहीं बहारें अब आती हैं
जैसे खुशबू गई चमन से
-आनन्द पाठक-
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