क़िस्त 86
341
देख तेरी तसवीर न जाने
दिल को क्या क्या हो जाता है
पागल सा कुछ बातें करता
किस दुनिया में खो जाता है
342
छोटी-मोटी कमियाँ सब में
कुछ ना कुछ तो शामिल होती
मनुज मनुज है ,देव नहीं है
हस्ती किसकी कामिल होती
343
नदिया जबतक मर्यादा में
बँध कर बहती, मन भावन है
तोड़ अगर तट्बन्ध बहे तो
कर देती फिर जल-प्लावन है
344
मर्यादा के अन्दर रहना
कितना सुखद भला लगता है
वरना तो हर शख़्स यहाँ पर
विष से जला बुझा लगता है
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